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Tuesday 11 October 2011

sanyasi to majbur nahi hai

चेतावनी -यह लेख बहुत ही ज्यादा विचारोतेजक है अतः सामान्य व्यक्तियों से अनुरोध है की वो कृपया करके इसे नहीं पढ़े यह लेख आपके दिमाग के सोचने के तरीके को प्रभावित कर सकता है और इसके पश्चात संभव है की आपके जीवन में अनावश्यक कठिनाइया आये क्योंकि नए तरह से सोचने पर आपको समाज से तालमेल बिठाने में कठिनाई हो सकती है 
                            सन्यासी तो मजबूर नहीं है 

हमारे पास भावनाए है इन भावनाओ की सहायता से हम निर्णय करते है हर आदमी स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय करता है लेकिन सच्चाई यही है की अधिकतर निर्णय मजबूरीबश लिए जाते है 
इस बात को हम एक उदाहरण से समझते है किसी समाज में कोई दो विचारधारा साथ साथ रह रही है जैसे किसान मजदुर , हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई ,भारत पाकिस्तान चीन अमेरिका हिंदी बोलने बाले अंग्रेजी बोलने बाले उर्दू बोलने बाले गोरे काले ,स्त्री पुरुष इत्यादि 
१)उपरोक्त अनेक विचारधाराओ में से हम सर्व सामान्य दो विचारधारा स्त्री पुरुष लेते है हमारा समाज इन दो विचार धाराओ के आधार पर दो हिस्सों में बटा है स्त्री तथा पुरुष 
एक पुरुष कुछ नहीं सोचता लेकिन एक पुरुष विचारधारा सोचती है - स्त्रिया हमसे आगे न निकलने पाए इस विचारधारा को एक संगठन मिल जाता है वह संगठन स्त्रियों पर तरह तरह के प्रतिबन्ध लगाता है अब ठीक इसके विरोध में एक स्त्री विचारधारा उत्पन्न होती है वह अब पुरुष विचारधारा के विरुध्ध सोचने के लिए बाध्य है आखिर निर्णय लेने के समय मज़बूरी आ गई खुला आसमान अब खाली नहीं रहा अब रास्ता निश्चित है और लोग मजबूर उसीपर चलने के लिए 
उपरोक्त बातो से क्या साबित हुआ उपरोक्त बातो से यह साबित हुआ की आखिर में लोग मजबूर हो जाते है निर्णय लेने के लिए  सारे निर्णय हम स्वतंत्रता  से नहीं लेते इन्ही मज़बूरी बस किये गए निर्णय से ये समाज ऐसा विकृत बन जाता है 
२)आइये अब एक नए तरीके से सोचते है हम हिन्दू है और हमारे इश्वर जीवंत है जिस तरह हमारे पास भावनाए है उसी तरह उनके पास भी भावनाए होंगी क्या सोचते होंगे वे अन्तर्यामी जब वह यह देखते होंगे की कोई मनुष्य जिसने सारा दिन मेहनत किया उसकी थाली की रोटी स्वार्थवश किसी शक्तिशाली ने छीन लिया क्योंकि वह छिनने में सक्षम था क्या सोचते होंगे वह जब वह यह देखते होंगे की एक इंसान को दूसरा इंसान इस लिए नहीं छूता क्योंकि वह अछूत है उन्होंने तो बाटकर नहीं भेजा था ( देखे नोट ३) क्या सोचते होंगे वो जब यह देखते होंगे जब चंद रुपयों (दहेज़ ) के कारण किसी के जीवन के अधिकार को छिनकर अकाल मृत्यु का ग्रास बना दिया जाता है उसे 
                 एक वो शिव है जिन्होंने हलाहल जहर पीकर संसार को बचाया एक हम मनुष्य है जिन्होंने नफरत का जहर फैलाया  नफ़रत तथा खुद को श्रेष्ट बनाने की सोच के जहर से उपजे हुए कटीले पेड़ है ये सामाजिक नियम जो आदमी को दोयम दर्जे की जिंदगी उपहारस्वरूप देते है
३) पुनः एक नए तरीके से सोचते है 
                                   अभी संसार भर में कोई समाज विकार रहित नहीं है कोई रंगभेद की नीति कोई धर्म भेद की नीति तो कोई जाती भेद की नीति का पालन कर रहा है अगर इनमे से कोई भी नीति कामयाब होती है तो हारे हुए वर्ग को दोयम दर्जे की जिंदगी उपहारस्वरुप दी जाती है 
                   अच्छा अगर भविष्य में कोई इन विकारो से रहित समाज अस्तित्व में आता है क्या वह हमें घृणा से नहीं देखेगा क्यों वो अबला को जलने वाले पुरुषो को इज्जत से देखे क्यों वह कमजोर और वेबस कालो को सताने वाले गोरों को इज्जत से देखे क्यों वह धर्म के नाम पर खून की होली खेलने वालो को इज्जत की नजर से देखे क्यों वह दलित उत्पीड़क उच्च जाती को इज्जत से देखे उसका करना सही होगा और उससे नजरे मिलाने की हममे हिम्मत न होगी उसके पास मानवियत तथा आत्मसम्मान का आत्मविश्वास होगा जिससे हम सबो की नजरे बरबस झुक जाएगी सन्यासियों को इज्जत के साथ जीना पसंद है क्या हम उस घृणा में जी पाएंगे 
                 उपरोक्त सोचने का तरीका काल्पनिक है ऐसा नहीं ही होगा लेकिन फिर भी क्या हम सब सही कर रहे है एक के गलती करने से आज सबको गलती करना पर रहा है क्या विश्व के लिए जहर पीने वाले हमारे शिव इससे प्रसन्न होंगे 
                       ......
                       ......
   पर सारा संसार स्वहित की खातिर इन विचारो को ढोने को मजबूर है 
  हम सन्यासी है जन्म लेने से पहले हमने जीवन से सन्यास लिया है हमें जीवन का मोह नहीं है हमारे पास सिर्फ सम्मान है और हम सिर्फ सम्मान ही पाना चाहते है लेकिन अपनी ही नजरो में गिरकर दुनिया से सम्मान पाना कितना उचित है हमने जीवन से सन्यास लिया है अतः हम सांसारिक रीती रिवाज ढोने को मजबूर नहीं है हम मानव को मानव से पहचानने और चिंतन करने में सक्षम है 
नोट १ -उपरोक्त लेख में दिए गए प्रसंग से आप कदापि यह न समझे की पुरुषो ने ही समाज को पुरुष तथा महिला में विभक्त किया हाँ इतना स्पष्ट है की इस मुद्दे पर जो वैचारिक युद्ध हुआ उसमे पुरुषो की ही जीत हुई और महिलाओ पर प्रतिबन्ध लगाए गए
नोट २ - भाग ३ में दी गयी व्याख्या कपोल कल्पना होते हुए भी इस सच को रेखांकित करती है की ये नियम कितने खराब है हालाँकि सामाजिक नियमो के लिए बहुत लोग जिम्मेदार नहीं है बस चंद लोगो ने स्वहित के लिए यह विस्तृत नरक तैयार कर दिया है जिसकी नरकाग्नि में रोज हजारो लोग जलते है उदहारण- एक दलित बच्ची को एक उच्च जाती के पुरुष ने कहा की मै तुम्हारे हाथ का पानी नहीं पीता बात सामान्य है पर बच्ची रोने लगी  उसके आत्मसम्मान को चोट पहुंची ये यातना देने का कौन सा सामाजिक तरीका है ?
नोट ३ - इश्वर ने किसी मनुष्य को बाटकर धरती पर नहीं भेजा उन्होंने तो आदमी और जानवर बाटकर भेजे है बाटना ही चाहते तो फिर कोई नई जीवजाति ही वो बना देते 
आदमी द्वारा जानवरों पर भी जुल्म करना उचित नहीं है 
सहोपकारिता सम्बन्ध उचित है परजीविता नहीं 
नोट ४ - किसी एक व्यक्ति द्वारा उठाए गए गलत मुद्दे महामारी या किसी कंप्यूटर वायरस की तरह फैलकर समूचे समाज को विकृत रूप प्रदान करते है स्वार्थ में अंधे व्यक्ति तो स्वार्थ को हासिल कर लेते है और समाज को सदियों तक चलने वाला लाइलाज रोग मुफ्त उपहार मिल जाता है इससे समाज में ढाचा बनता है और ढाचे का अंतिम सिरा कीचड़ में होता है जहाँ नरक ही होता है 
               अब जब हम इस मुद्दे को समझ चुके है तो सन्यासी जिसको जीवन का स्वार्थ नहीं वह क्यों इन स्वार्थ से बने मुद्दों का साथ दे यह हमारा सोचना है 
हर वह आदमी सन्यासी है जिसने जीवन का मोह त्यागकर सन्यास लिया है - हमारे पूर्वजो का कथन 
अंत में -अगर आपने सम्पूर्ण लेख को पढ़ ही लिया है तो आपसे सादर निवेदन है की इस लेख में लिखे विचारो का सार्वजानिक प्रकाशन न करे क्योंकि सामाजिक नियमो की रस्सियों के सहारे खड़े लोग आपको इंसानियत के पैरो पर खड़ा देखकर आपके टांगो को तोड़ने का षड़यंत्र शुरु कर देंगे और बिना बहुमत के आप हारकर सुकरात की श्रेणी में शामिल हो जायेंगे 
                                                                                             अच्छा अब विदा

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